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शनिवार, 3 जुलाई 2021

अक्स

 अनकहे अल्फाज़ों  को 

हवा में बहने दो।

कुछ अनकही रही थी

 वह सुनने दो।

भीनी हवा का रुख 

यूँ  बहने दो।

अनपहचाने का अक्स    

 जेहन में  तिरने दो।

मिलेंगे उनसे जब 

 तो पहचानेंगे ।

 पहचान पुरानी थी 

या कि नयी।

अनदेखी  दुनिया में

 देखा था जिनको।

मिले जो आज 

क्या हैं वही।

पल्लवी गोयल 

9 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (5-07-2021 ) को 'कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये कुछ कुछ नहीं है'(चर्चा अंक- 4116) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय, रचना को चर्चा मंच प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार।

      हटाएं
  2. अनकहे अल्फाज़ों को
    हवा में बहने दो...वाह!बहुत सुंदर।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीया, रचना को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए सादर आभार।

      हटाएं
  3. उत्तर
    1. आदरणीया, ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है। सादर आभार।

      हटाएं