हे सुंदरी! तुम कौन?
कुछ अपनी सी लगती हो।
हजारों सालों की दूरी सही,
पर प्रीत पुरानी लगती है।
गुमसुम चुप सा ठहर गया यूँ ,
समय यहाँ और वहाँ कोई ।
वक्त ने खड़ी इस बार भी
की ,फिर नयी दीवार वहीं।
हे प्रिये! तुम यूँ ही रहो,
अपलक तुम्हें निहारूंगा मैं।
सौ जान तुम्हारी एक अदा
पर ,बार -बार वारूंगा मैं।
मुझे देख खुश होती हो तो
समझ लो बस इतनी-सी बात ।
इस घनेरी हँसी के आगे,
बिक जाऊँ ,बिन मोल के हाथ।
मैं भूत का साया भले हूँ ,
तुम भविष्य का उजला गात।
मेरी तेरी प्रीत के आगे ,
वक्त की नहीँ कोई औकात ।
पल्लवी गोयल
चित्र गूगल से साभार