हर पल
तेरे चेहरे
की शक्ल में
तेरी मूरत आती है,
गोता लगाती है,
खिलखिलाती है,
खाला जी का घर समझ
यहीं पर बस जाती है
क्या तुझे और
नहीं कोई काम ?
क्षण भर को न लेती
मुस्कराने से विश्राम
जा ! खाली कर दे
इस रास्ते को
गुजरना है अभी
औरों को भी
इस दर से
बहुत ही निर्लज्जा बनी मैं
कठोरहृदया , दिया तुझे वज्राघात
परन्तु इन चार पंक्तियों के
इस विचार को
क्यों न कर पाई आत्मसात ?
जो प्रहार किया था तुझपर
पूरे वेग से आ पड़ा
मुझ ही पर
तेरे चेहरे पर तिरती
यह मुस्कान
क्यों नहीं उतरती
मेरे मुख पर
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