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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

तेरी मुस्कान

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हर पल
तेरे चेहरे
की शक्ल में
तेरी मूरत आती है,
गोता  लगाती है,
खिलखिलाती है,

खाला जी का घर समझ
यहीं पर बस जाती है

क्या तुझे और
नहीं कोई काम ?

क्षण  भर को न लेती
मुस्कराने से विश्राम

जा ! खाली  कर दे
इस रास्ते  को
गुजरना  है अभी
औरों  को भी
इस दर से


बहुत ही निर्लज्जा  बनी मैं
कठोरहृदया , दिया तुझे वज्राघात

परन्तु इन चार पंक्तियों के
इस विचार को
क्यों न कर पाई  आत्मसात ?

जो प्रहार किया था तुझपर
पूरे वेग से आ पड़ा
मुझ ही पर

तेरे चेहरे पर तिरती
यह मुस्कान
क्यों नहीं उतरती
मेरे मुख पर  

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