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सोमवार, 4 नवंबर 2019

गंतव्यहीन


एक पत्र था वह 
मेरे अरमानों का 
कुछ बातें थीं 
कुछ  यादें थीं 
कुछ मुलाकातों का 
जिक्र वहीं था
कुछ टूटे का 
काँच वहीं था
कुछ कसमें थीं
 कुछ वादे थे 
टूटे संभले से 
इरादे थे 
कुछ कहे अनकहे
 जुमले थे 
कुछ सुने अनसुने 
किस्से थे
कुछ चोटों का 
मर्म वही था 
कुछ दुखड़ोंका 
गम भी वहीं था 
कुछ आंखों की
 नरमी थी 
कुछ सांसों की 
गर्मी थी
भावों के जाम 
शब्दों में उडेले थे 
लड़खड़ाते इधर-उधर 
फैले थे 
झरना था या
बांध कोई  टूटा
जिधर निकलता 
सब कुछ बदलता 
बेहतर था वह
मेरे पास रहे 
निर्माता के यादों का
 बस साक्षी  बने।

पल्लवी गोयल 
चित्र गूगल से साभार